नरसिंह नृत्य

ब्रज में एक ओर नृत्य परम्परा नरसिंह लीला के नाम से प्रसिद्ध है। यह लीला नरसिंह चतुर्दशी की रात को मथुरा और वृन्दावन के कई मुहल्ले में आयोजित होती है। नरसिंह लीला नृत्य प्रधान होती है, जिसमें कोई नाटक या संवाद नहीं होता। जिन मुहल्लों में यह लीला होती हैं, वहाँ की गली का ही मंच के रुप में प्रयोग होता है। गली के दो छोरों पर दो तखत डाल दिए जाते हों और पहले तखत से दूसरे तखत तक लगभग डेढ़ फलार्ंग की लम्बाई में सज्जित पात्र नृत्य करते हुए चक्कर लगाते है। नृत्य करने वाले पात्रों की संगत एक सामूहिक वाद्यवृंद द्वारा की जाती है जो नर्तक के साथ ही वाद्य बजाते हुए उसके पीछे चलते हैं। इस नृत्य में कई जोड़ी बड़े झांझ समवेत स्वर में बजाए जाते हैं।

इस नरसिंह नृत्य में लवणासुर, शत्रुघ्न, हरण्याक्ष, वाराह, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता क्रमश: आकर गली में एक छोर से दूसरे छोर तक एक-एक करके नृत्य करते है और चले जाते हैं। यह क्रम थोड़े-थोड़े विराम से पूरी रात्रि चलता है। प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व लंबे-लंबे केशपाशों को बिखेरे हुए भारी मुखौटा लगाए ताड़का का पात्र नृत्य करता है। बाद में पीले वस्रों में माला लिए बालक प्रह्मलाद अपने सखाओं के साथ आकर नृत्य करते हैं। इसके उपरांत सूर्योदय हो जाने पर लगभग ८ बजे तखत पर कागज का बना एक विशालकाय पोला खंभ खड़ा कर दिया जाता है, जिस पर हिरण्यकश्यप तलवार चलाता है। ऐसा करते ही उसे फाड़कर उसमें से नरसिंह भगवान भयंकर मुद्रा में नृत्य करते हुए प्रकट होता है। यह नरसिंह वेशभूषा और अपनी नृत्य मुद्राओं से रौद्र-रस को सकार करते हुए अपनी फेरी पूरी करते हैं। नृत्य समाप्त करने के उपरान्त श्री नरसिंह हिरण्यकश्यप को पकड़कर उसे अपनी जांघो पर लिटाते है और इसके उपरांत उनकी आरती होती है। प्रह्मलाद उनकी गोद में बैठता है और यह लीला समाप्त होती है। 

यह लीला मथुरा, वृंदावन में कब से होती है? कुछ कहा नही जा सकता। परन्तु यह परम्परा बहुत प्राचीन है। पुराणों में मथुरा प्रदेश को वाराह मंडल कहा गया है। अत: वाराह और हिरण्याक्ष का नृत्य स्वयं इस लीला की प्राचीनता का द्योतक है। इतिहास से ज्ञात होता है कि मथुरा नगरी मधु द्वारा बसाई गई थी और उसके अत्याचारी पुत्र लवण को भगवान श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न ने मारकर इस नगर को पुन: स्थापित किया था और यहाँ अपनी राजधानी बनाई थी। ऐसी दशा में जब नरसिंह लीला में लवण और शत्रुघ्न एक दूसरे के बाद नृत्य करते है, तब इस लीला की प्राचीनता स्वयं ही सिद्ध हो जाती है।

नरसिंह लीला के यह नृत्य दक्षिण की कथकलीं नृत्य शैली से बहुत साम्य रखते है। इन नृत्यों की गति पग-संचालन तथा नृत्य के साथ बजने वाले बड़े-बड़े झांझों का तुमुल घोष जहाँ कथकली से साम्य रखता है, वहीं भगवान नरसिंह का मुखौटा कथकली के मुखौटों से भी कहीं अधिक विशाल और भयंकर होता है। इस मुखौटे को धारण करने के लिए पात्र के मुख पर पहले चारों ओर कपड़ों के कई थान लपेटे जाते हैं, जब वह इसे धारण कर पाता है। यह इतना भारी होता है कि नृत्य करते हुए श्री नरसिंह को साधने के लिए दो व्यक्ति उनकी कमर के इधर-उधर झुकते हुए उन्हें साधकर नृत्य कराते है तथा कुछ व्यक्ति हाथ में पंखे लिए मुखमंडल पर वायु का संचार करते रहते हैं। नरसिंह का स्वरुप और नृत्य इतना रौद्र-रसपूर्ण होता है कि छोटे बच्चे तो डरकर भाग जाते है या आँखें मींच लेते हैं।

यह नरसिंह लीला एक धार्मिक अनुष्ठान के रस में होती है। श्री नरसिंह का मुखौटा जिसे नरसिंह लीला में धारण कराया जाता है, मुहल्ले के किसी मन्दिर या पवित्र स्थान पर पूरे वर्ष विराजित रहता है और उसकी मूर्ति के समान ही पूजा जाता है और भोग लगाया जाता है। नरसिंह लीला से पहले इस मुखौटे का विशेष रुप से पूजन होता है और हलुआ का प्रसाद पूरे मुहल्ले में बाँटा जाता है, जिससे सभी को नरसिंह लीला के आयोजन की सूचना भी मिल जाती है और व्यापक रुप से लीला की तैयारी होने लग जाती है। इस प्रकार नरसिंह नृत्य अपने आप में एक विशिष्ट परम्परा संजोए हुए है।

 

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