कहरही (कहरुआ नृत्य)

'कंहारों' का पुस्तैनी पेशा पालकी ढोना था। बाद में ये मिटटी बर्तन भी बनाने लगे। इस काम में उल्लास के लिए इन्होने नाचना -गाना भी अनिवार्य समझा। अतः चाक की गति के संग-संग गीत भी गुनगुनाने लगे। 'संघाती' घड़े पर ताल देने लगे और ठुमकने भी लगे। ओरी-ओरियानी खड़ी होकर महिलाएं गीत दुहराने लगीं। इस प्रकार नृत्य, गीत, वाद्य का समवेत समन्वय हो गया और उससे एक विधा का जन्म हो गया जिसे 'कंहरही' कहते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहाँ इनकी बस्ती है, ये लोग अपने आनंद और आल्हाद के लिए, श्रम -परिहार के लिए, मधुर धुन, लय, ताल में नाचने-गाने लगे।

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