छाऊ नृत्य

छाउ एक आदिवासी नृत्य है जो बंगाल, ओड़ीसा एवम झारखंड मे लोक्प्रिय है। इसके तीन प्रकार है- सेरैकेल्लै छाउ, मयुर्भञ छाउ और पुरुलिआ छाउ। 

छाउ नृत्य मुख्य तरिके से क्षेत्रिय त्योहारो मे प्रदर्शित किया जाता है। ज्यादातर वसंत त्योहार के चैत्र पर्व पे होता है जो तेरह दिन तक चलता है और इसमे पुरा सम्प्रदाय भाग लेता है। इस नृत्य मे सम्प्रिक प्रथा तथा नृत्य का मिश्रन है और इसमे लडाई कि तकनीक एवम पशु कि गति और चाल को चर्चित किया जाता है। गांव ग्रह्णि के काम-काज पर भी नृत्य प्रस्तुत किय जाता है। इस नृत्य को पुरुष नर्तकि करते है जो परम्परगत कलाकार है या स्थनिय समुदाय के लोग है। ये नृत्य ज्यादातर रात को एक अनाव्रित्य क्षेत्र मे किया जाता है जिसे अख्ंड या असार भी कहा जाता है। परम्परगत एवम लोक स्ंगित के धुन मे यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। मोहुरि एवम शहनाई का भी इस्तेमाल होता है, तरह-तरह के ढोल, धुम्सा और खर्का का भी प्रयोग होता है। नृत्य के विषय मे कभी कभी रामायन और महाभारत के घट्ना का भी चित्रन होता है। छाउ नृत्य मुल रूप से मुंडा, माहातो, कलिन्दि, पत्तानिक, समल, दरोगा, मोहन्ती, भोल, अचर्या, कर, दुबे और साहू सम्प्रदाय के लोगो के द्वारा किया जाता है। छाउ नाच के संगीत मुखि, कलिन्दि, धदा के द्वारा दिया जाता है। छाउ नृत्य मे एक विशेष तरह का नकाब का इस्तेमाम होता है जो ब्ंगाल के पुरुलिआ और सेरैकेल्ला के सम्प्रदायिक आदिवासि महापात्र, महारानि और सुत्रधर के द्वारा बनाया जाता है। नृत्य स्ंगीत और नकाब बनाने एवम का कला और शिल्प मौखिक रूप से प्रेशित किय जाता है।

 

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जनजातीय और लोक संगीत

जनजातीय और लोक संगीत

जनजातीय और लोक संगीत उस तरीके से नहीं सिखाया जाता है जिस तरीके से भारतीय शास्‍त्रीय संगीत सिखाया जाता है । प्रशिक्षण की कोई औपचारिक अवधि नहीं है। छात्र अपना पूरा जीवन संगीत सीखने में अर्पित करने में समर्थ होते हैं । ग्रामीण जीवन का अर्थशास्‍त्र इस प्रकार की बात के लिए अनुमति नहीं देता । संगीत अभ्‍यासकर्ताओं को शिकार करने, कृषि अथवा अपने चुने हुए किसी भी प्रकार का जीविका उपार्जन कार्य करने की इजाजत है। Read More : जनजातीय और लोक संगीत about जनजातीय और लोक संगीत

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