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बहरूपिया कला
भारत में बहुरूप धारण करने की कला बहुत पुरानी है. राजाओं-महराजाओं के समय बहुरूपिया कलाकारों को हुकूमतों का सहारा मिलता था. लेकिन अब ये कलाकार और कला दोनों मुश्किल में है.
इन कलाकारों का कहना है कि समाज में रूप बदल कर जीने वालों की तादाद बढ़ गई है. लिहाजा बहरूपियों की कद्र कम हो गई है.
इन कलाकारों में हिंदू और मुसलमान दोनों हैं. मगर वे कला को मज़हब की बुनियाद पर विभाजित नहीं करते. मुसलमान बहरूपिया कलाकार हिंदू प्रतीकों और देवी-देवताओं का रूप धारण करने में गुरेज़ नहीं करता तो हिंदू भी पीर, फ़कीर या बादशाह बनने में संकोच नहीं करते.
ये कला बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है. मेरे ख़्याल से सबसे ज़्यादा बहुरूपिया कलाकार राजस्थान में ही हैं. पुरे देश में कोई दो लाख लोग हैं जो इस कला के ज़रिए अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं.
अब्दुल हमीद, बहुरूपिया
अब्दुल हमीद दिल्ली में कई वर्षों से इस कला को प्रोत्साहित करते रहे हैं. वो कहते है, “ये कला बहुत बुरे दौर से गुज़र रही है. मेरे ख़्याल से सबसे ज़्यादा बहरूपिया कलाकार राजस्थान में ही हैं. पूरे देश में कोई दो लाख लोग हैं जो इस कला के ज़रिए अपनी रोज़ी-रोटी चलाते हैं.”
राजस्थान के सीकर के यासीन को ये फ़न अपने पुरखों से विरासत में मिला है. वो बड़े मन से इस कला का प्रदर्शन करते हैं. लेकिन उनके तीनो बेटों ने इससे हाथ खींच लिया है. बेटों का कहना है कि ‘इस कला की न तो कोई कद्र करता है और ना ही इसका कोई भविष्य है.’
यासीन कहते हैं, “हमें पुरखों ने बताया था कि बहरूपिया बहुत ही ईमानदार कलाकार होता है. राजाओं के दौर में हमारी बड़ी इज़्जत थी. हमें ‘उमरयार’ कहा जाता था. हम रियासत के लिए जासूसी भी करते थे. राजपूत राजा हमें बहुत मदद करते थे और अजमेर में ख्वाज़ा के उर्स के दौरान हम अपनी पंचायत भी करते थे. आज हर कोई भेस बदल रहा है. बदनाम हम होते हैं. लोग अब ताने कसते हैं कि कोई काम क्यों नहीं करते.”
Iबहुरूपिया कलाकार को राजाओं के दरबार में काफ़ी इज़्जत मिलती थी
ज़्यादातर बहरूपिया कलाकार बड़े मंचो से वंचित रहते हैं. वे फ़ुटपाथ पर अपना मजमा लगाते हैं और लोगों का मनोरंजन करते हैं. मगर पंजाब के बहरूपिया कृष्ण इससे अलग हैं. कृष्ण को ये कला यूरोप और अमरीका तक ले गई.
कृष्ण स्पैनिश और फ्रेंच की नक़ल कर लेते हैं. वो अब तक क़रीब एक दर्जन भर देशों में अपने हुनर का प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन भारत में इस कला के कद्रदान के मामले में कृष्ण और यासीन के नज़रिए में कोई अंतर नहीं हैं.
कृष्ण का कहना है, ''हमारे समुदाय से कई परिवार अब इस कला से हट गए हैं. क्या करें पेट तो भरना ही होगा.”
कृष्ण कहते हैं कि बहरूपिया के 52 रूप है. जो भय पैदा कर दे वो ही बहरूपिया है. कृष्ण ने गुजरात में हिंसा का वो दौर देखा है ‘जब बस्तियां मज़हब की हदों में बंट गई थीं और सियासत या तो शरीके-जुर्म थी या फ़रार हो गई थी.’ मगर ये बहरूपिया कलाकार बस्तियों में भाईचारे का पैगाम बाँटते रहे.
हम इस कला को ज़िंदा रखना चाहते हैं. हम हिंदू भेस धारण कर मुस्लिम बस्तियों में जाते हैं और प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं.
बंसीलाल मोहनलाल, बहरूपिया
अहमदाबाद के बहरूपिया बंसीलाल मोहनलाल कहते हैं, “हम इस कला को ज़िंदा रखना चाहते हैं. हम हिंदू भेस धारण कर मुस्लिम बस्तियों में जाते हैं और प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं.”
नए नए रूप धारण करने के चलन का ज़िक्र महाभारत में भी है. महाभारत में भगवान कृष्ण के कई रूप धारण करने की बात है और उन्हें छलिया भी कहा गया.
मगर अब जैसे भारत में 60 साल की कहानी रुख़ से नक़ाब हटने का किस्सा बन गई हो. कभी किसी धार्मिक हस्ती का चेहरा बेनकाब होता है तो कभी किसी नेता का.
दौसा ज़िले के बहरूपिया अशोक तो सारा दोष ही नेताओं के सर मढ़ते हैं. कहते हैं कि जब सारा समाज ही भेस बदल रहा तो हमें कोई क्यों पूछेगा, नेता ही सबसे बड़े लिबास बदलने वाले हैं.
ये कलाकार जब अपना हुनर दिखाते हैं और दावा करते हैं कि वे ही असली बहुरूपिए हैं तो तमाशबीन चक्कर में पड़ जाते हैं. उन्हें लगता फिर वो कौन हैं जो ऊँचे मुकाम और मंचो पर बैठे हैं.
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