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कत्थक नृत्य और रास
वर्तमान रास-नृत्य, कत्थक-नृत्य से प्रभावित कहे जा सकते है परन्तु हमारे विचार से यह कत्थक से संबंधित होते हुए भी स्वतंत्र है। इसका कारण शायद यह रहा कि प्राची परम्परा का प्रभाव इन नृत्यों पर भक्ति युग में भी बना रहा होगा और उसी को वल्लभ ने अपना आधार बनाया होगा। रास के प्राचीन नृत्यों में चर्चरी का उल्लेख हुआ है। यह चर्चरी नृत्य रास में आज से लगभग चालीस-पचास साल पहले तक होता रहा है, परन्तु अब लुप्त हो गया है। रास-नृत्य में धिलांग का भी उपयोग है जो बहुत ही प्रभावशाली और अनूठा है। यह कथक या किसी अन्य नृत्य-शैली में नहीं मिलता। इसी प्रकार श्री कृष्ण रास में जो घुटनों का नाच नाचते है वह भी बेजोड़ है। भरत नाट्य की भ्रमरी से उसकी तुलना हो सकती है, परन्तु उसमें वह आकर्षण नहीं, जो रास के घुटनों के नाच में है। साथ ही रास की मुद्राएँ भी सहज, साफ और सपाट हैं, जबकि कत्थक में सुन्दरता लाने के लिए उनमें सजावट के लिए जोड़-तोड़ किए गए है। इस प्रकार रास-नृत्य को कथक मूल रुप का प्रतिनिधि अथवा उसका जनक तो माना जा सकता है, परन्तु रास-नृत्य में कत्थक से काफी भिन्नता है। रास के नृत्य धमार ताल में है जबकि कत्थक की मुख्य ताल प्राय: त्रिताल है।
जैसा पहले कह चुके है, नटनागर भगवान कृष्ण रास-नृत्यों के आदि जनक हैं और उनके कलात्मक व्यक्तित्व की गहरी छाप सभी नृत्यों पर है। भरत नाट्य के प्रारंभकर्ता अर्जुन माने जाते हैं, जो श्री कृष्ण के अनन्य सखा थे। ऐसी दशा में भरत नाट्य में उनके व्यक्तित्व का प्रभाव अवश्य ही पड़ा होगा।
वर्तमान रास-नृत्य के दो रुप है- पहरा रुप जिसे नित्यरास कहते है, प्रारम्भ में नाचा जाता है, रास के दूसरे भाग में जब श्री कृष्ण की कोई लीला अभिनीत की जाती है तो उसमें ब्रज के विभिन्न लोकनृत्यों का भी समावेश कर दिया जाता है।
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