होली नृत्य

होली मूलतः गायन विधा ही है किन्तु अब विशेष रूप से अवध क्षेत्र में इसे नृत्यात्मक बना दिया गया है। होरी, जोगीरा, कबीरा इसकी शैलियाँ है। होली के अवसर पर अथवा पूरी फाल्गुन माह भर यह गीत विशेष रूप से पुरुषों को उन्मुक्त और मतवाला बना देता है। युवक - युवतियां दोनों इस नृत्य में सम्मिलित होते हैं और ढोल, मंजीरा, हारमोनियम, झांझ, मृदंग के संग गीत की पंक्तियों के बीच 'जोगीरा' छोड़ते जाते हैं।

होली ब्रज का ऐसा रंग-रंगीला त्यौहार है जो संपूर्ण वातावरण को ही नृत्य-संगीतमय कर देता है। मथुरा में इस अवसर पर चतुर्वेदी वसनाठ्य ब्राह्मणों में तान की चौपाई निकालने की परम्परा रही है। यह ताने प्रति वर्ष कवियों द्वारा रची जाती है जिनमें शास्रीय संगीत व लोक संगीत का अपूर्व सम्मिश्रण रहता है तथा उनमें स्थानीय चुहल भी रहती है। वह ताने लोकनृत्य के साथ नव युवकों द्वारा होली के दिनों में सामूहिक रुप से नृत्य के साथ गाई जाती हैं। गाँवों में काष्ठ के पहियों के फ्रेम पर बड़े-बड़े बंबों को रखकर नाचते-गाते होली के जुलूस निकाले जाते हैं। इन नृत्यों के साथ साखी गाने की परम्परा हैं। यह साखी कभी-कभी प्रश्नोत्तरों में भी होती है, जैसे "विंद्रावन आधार कमल पै। यों मति जाने प्यारे अधर धरौ है, ये तौ शेषनाग के फन पै।"

 

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