रास नृत्य

नृत्य मानक की आदिम प्रवृत्ति है। उल्लास के क्षणों की यह प्रवृत्ति अपनी लय- ताल की अनुरुप व्यवस्था में पद- गति को सहल ही अभिनय तत्व से समन्वित करके नृत्य का स्वरुप प्रदान करने में समर्थ हो जाती है। मंडलपरकता इसकी स्वाभाविकता हे। शायद यही कारण है कि भारतवर्ष में ऐसे नृत्य चाहे दक्षिण के सुदुरवर्ती तमिलनाडु प्रदेश में प्रचारित हुए हों अथवा पूर्व में मणिपुर की भूमि पर विकासमान रहे हों -- सभी में एक मंडलपरकता विद्यमान है। ब्रज का रास- नृत्य भी ऐसा ही कर मंडलीकृत नृत्य है, जिसकी स्वरुपगत एकरुपता अपने अखिल भारतीय स्वरुप में -- गुजरात हो अथवा मालावार, ब्रज- वृंदावन हो अथवा दक्षिण का कोई भू- भाग -- सर्वत्र देखने को मिलेगी।

रास- नृत्य का उद्भव

लक्षण ग्रंथों के आधार पर नृत्य ताल और लय के आश्रित बताया गया है और यही नृत्य जब पदार्थाभिनय एवं भावाश्रय होता है, तब इसे नृत्य संज्ञा से विभूषित किया जाता है। जहाँ तक रास- नृत्य का संबंध है, यह नृत्य अपने लीलात्मक स्वरुप में ताल, छंद, गीत उपरुपक, रुपक एवं नाट्स अथवा गीति रुपक -- सभी के तत्वों को समाहित करता हुआ न केवल लक्ष- लक्ष जन- मन के रंजन का साधन बना है, वरन सहस्रों हृदयों में भक्ति- गंगा को प्रवाहित कर उन्हें लीला रस- सागर में आकंठ निमग्न करने का समुचित अवसर भी प्रदान करता है।

अपनी विकास यात्रा में ब्रज के रास- नृत्य ने अनेक समानांतर धाराओं को भी आत्मसात किया है। उसने उनके स्वरुप को निखारा- संवारा है और आज एक विशिष्ट शैली के रुप में अपने स्वरुप का प्रतिष्ठापन कर देश के सांस्कृतिक फलक पर भावात्मक एकता का समुन्नत रुप अत्यंत सफलता से अंकित किया है। रास- नृत्य की पूर्ववर्ती एवं समानांतर ऐसी धाराओं में 
"हल्लीसक' नृत्य विशेष उल्लेखनीय हैं। "हल्लीस' शब्द अपनी अर्थगत परिधि में एक प्रफुल्लितकमल का अभिव्यंजक है। रास- नृत्य में गोपियों के मंडल में श्रीकृष्ण की नृत्यरत स्थिति प्रफुल्लित कमलवत होने के कारण ही संभवतः हल्लीसक नाम से अकिंभसंज्ञक हो सकी। महाकवि भास के बालचरित में हल्लीस नृत्य की जिस रुपरेक्षा का निर्माण हुआ है, उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि वह हल्लीसक स्री- पुरुष का एक मंडलाकार समूह नृत्य था, जो विविध ताल- लय समन्वित गायन- वादन से संपृक्त था। नाट्यशास्र के सुप्रसिद्ध व्याख्याता अभिनवगुप्तने हल्लीसक का लक्षण करते हुए उसकी व्याख्या में स्पष्ट रुप से "गोपस्रीणां यथा हरि:" स्वीकार किया है। भोज की शब्दावली ""तदिदं हल्लीसकमेव तालबंध विशेषमुक्तं रास एवंत्युच्यते'' में रास आर हल्लीसक के भेद एवं समरुपता को और भी स्पष्ट अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। काव्यशास्रीय लक्षण ग्रंथों में कतिपय शब्द- भेद से हल्लीसक और रास की अनेक परिभाषाएँ होती रही और इसी पृष्टभूमि पर अपनी दर्शनपरक व्याख्याओं में रास की जो परिभाषा वैष्णव आचार्यों द्वारा मान्य हुई उसके आयाम में रास- रस अपनी विपुल संपदा के साथ आज उसकी गौरव गाथा प्रस्तुत करने में सर्वथा समर्थ है।

रास शब्द के आरंभिक प्रयोग की दृष्टि से महाभारत का खिलपर्व -- हरिवंश पुराण विशेष अवलोकनीय है। विष्णुपर्व के २० वें अध्ययाय में ब्रजमंडल के यमुना पुलिन पर शरदकालीन दुग्ध धवलित जिन रात्रियों में रास किए जाने का उल्लेख हुआ हे, वे रास की ऐतिहासिक श्रृंखला को जोड़ने में निश्चित रुप से महत्वपूर्ण हैं। इसी पुराण में अन्यत्र विष्णुपर्व के ८९ वें अध्याय मं एक ऐसे वृहदोत्सव का भी आयोजन हुआ बताया गया है। इस प्रसंग में श्री कृष्ण की उपस्थिति के उनके चरित्र के विशिष्ट अंशों को अप्सराएँ प्रस्तुत करती हैं और रास- नृत्य के उद्दामे आवेग के समुपस्थ्ति होने पर रास के प्रणेता यहाँ स्वयं नारद बनते हैं। विष्णु पुराण, श्रीमद भागवत पुराण एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि ग्रंथों में भी रास का सांगोपांग वर्णन हुआ है। रास- नृत्य एवं रासलीला के संदर्भ सूत्रों के अन्वेषण के लिए उपादेय सामग्री के रुप में ब्रह्मपुराण, पद्म पुराण, गर्ग संहिता, देवी भागवत, नारद पांचरात्र, गीत गोविंद, कृष्ण कर्णामृत, बालगोपाल स्तुति, रास सहस्त्रपदी एवं सदुक्तिकर्णामृत, कवींद्र वचन समुच्चय एवं विविध पद्यावलियों में संकलित पद- रचनाओं आदि का अध्ययन भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहक है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी मथुरा में शैलालिनों द्वारा किए जाने वाले ई. प्रथम द्वितीय शती के लीलाभिनय- प्रस्तुतीकरण के समर्थन में नव जैन अभिलेखों को देखा- परखा जा सकता है। श्री कृष्ण और संकर्षण की लीलाएँ उस काल में किंही चंदक बंधुओं द्वारा अभिनीत की जाती थी, ऐसा निष्कर्ष इस शिलालेख से सहज ही निकाला जा सकता है।
 

There is currently no content classified with this term.

Search engine adsence