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ठुमरी का नवनिर्माण
ठुमरी को लम्बे समय तक नायिका के बनाव शृंगार, मान-मनौव्वल, उपेक्षा-विरह और छेड़-छाड़ से जोड़ कर देखा गया लेकिन गिरिजा देवी ने इस ठुमरी गायकी को सात्विकता प्रदान की और इसे भक्ति रस से सराबोर कर दिया और उनका गायन उनके लिए भक्ति साधना कामाध्यम बन गया.
संकट मोचन मंदिर के महंत एवं कलामर्मज्ञ डॉ बिश्वम्भर नाथ मिश्र ने गिरिजा देवी के निधन को अपूरणीय क्षति करार देते हुए कहा -"देखिए वो मेरे लिए अभिभावक थी और श्रीसंकट मोचन संगीत समारोह से उनका आध्यात्मिक लगाव था. वे यहां वर्षों तक निरन्तर आती रहींऔर हनुमान जी के सामने स्वरांजलि प्रस्तुत करती रहीं, अभी इसे वर्ष उन्होंने कार्यक्रम के दौरान मंच से कहा "इहां आवे का मतलब हौ अपने घरे आके अपने हनुमान जी अ आपन लोगन के सामने गाना, इहां हम कुछ सोच के नाही गावे आईला, जौन हनुमान जी क आदेस होला ओकर पालन करीला. (यहां आने का मतलब है अपने घर और अपने ईश्वर के सामने गाना , यहां मैं कुछ सोच कर नहीं आती , जैसा हनुमान जी चाहते हैं, वैसा कर देती हूं. "
"ऐसा लगता था मानों उन्होंने श्रोताओं से आत्मीयता स्थापित करने की जिम्मेदारी ले ली थी और उन्होंने शास्त्रीय संगीत के साथ नई पीढ़ी का रागात्मक तादात्म्य स्थापित करने की जिम्मेदारी को निभाया और बनारस की सांगीतिक परम्परा प्रवाह को आगे बढ़ाया.“
वाराणसी के मूलनिवासी, रंगकर्मी एवं एक राष्ट्रीय एफ एम रेडियो के रचनात्मक प्रभाग के प्रमुख विपुल नागर गिरिजा देवी के कार्यक्रमों के दौरान किए गए अपने मंच सञ्चालन को याद करते हुए भावुक हो गए और उन्होंने बताया कि 'मुझे कभी किसी ने कहा था कि ठुमरी अगर देह है तो अप्पा जी उसकी आत्मा, मैंने जब भी मंच पर उन्हें करीब से गाते हुए सुना तो मुझे हर बार कुछ नया अनुभव मिला, वे आत्मा से गाती थीं और ठुमरी में अब आत्मा की खोज दुरूह होगी."
उनके प्रशंसक कई दशकों तक लगातार मुग्ध होकर उनके अनहद स्वर को सुनते रहे और उन्हें शास्त्रीय स्वरलोक की महीयसी मूर्ति के रूप में पूजा जाता था. वे सरस्वती की साधिका तो थी हीं लेकिन उनका मानुषी स्वभाव उन्हें औरों से अलग करता था. वे हमेशा अपने चाहने वालों की सुख स्मृतियों में सदा विद्यमान रहेंगी. उनका प्रयाण एक युग का अंत है . शिव की बेटी शिव के सायुज्य में पुनः चली गई लेकिन उनके चाहने वालों को भरोसा है कि वे अपने साथ अपना पसंदीदा दो जोड़ा पान जरूर ले गई होंगी.
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