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स्वर पञ्चम का शास्त्रीय परिचय
पञ्चम स्वर साम की प्रतिहार भक्ति के तुल्य हो सकता है। प्रतिहार के विषय में कहा गया है कि इसमें अन्न का हरण किया जाता है। मध्यम अथवा उद्गीथ भक्ति द्वारा विकसित हुए सर्वोच्च स्थिति के प्राणों को, गुणों को जिस अन्न की आवश्यकता पडती होगी, पञ्चम स्वर उस अन्न को प्रदान करता होगा। नारद का वीणावादन पञ्चम स्वर में होता है।
पञ्चम स्वर हेतु पंक्ति छन्द का निर्देश है। पंक्ति छन्द का एक लक्षण यह होता है कि इस छन्द में पांच पंक्तियां या पद होते हैं। सोमयाग का एक प्रकार पृष्ठ्य षडह कहलाता है जिसमें मुख्य साधना के छह दिन होते हैं। पहले दिन की संज्ञा रथन्तर, दूसरे दिन की बृहत्, तीसरे दिन की वैरूप, चौथे दिन की वैराज, पांचवें दिन की शक्वर तथा छठें दिन की संज्ञा रैवत होती है। इन नामों का कारण यह है कि इन दिनों में इन-इन सामों का गान पृष्ठ साम के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक दिवस के कुछ विशिष्ट लक्षण ऐतरेय ब्राह्मण आदि में कहे गए हैं। पांचवें दिवस के लक्षणों में से कुछ यह हैं(ऐतरेय ब्राह्मण ५.६)- गौर्वै देवता पञ्चममहर्वहति त्रिणवः स्तोमः शाक्वरं साम पङ्क्तिश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। यद्वै नेति न प्रेति यत्स्थितं तत्पञ्चमस्याह्नो रूपम्। यद्धेव द्वितीयमहस्तदेतत् पुनर्यत्पञ्चमम्। यदूर्ध्ववत् प्रतिवद्यदन्तर्वद् यद् वृषण्वद्यद् वृधन्वद्यन्मध्यमे पदे देवता निरुच्यते यदन्तरिक्षमभ्युदितम्। यद्दुग्धवद् यदूधवद्यद्धेनुमद्यत्पृश्निमद्यन्मद्वत्पशुरूपं यदध्यासवद् विक्षुद्रा इव हि पशवो, यज्जागतं जागता हि पशवो, यद्बार्हतं बार्हता हि पशवो, यत्पाङ्क्तं पाङ्क्ता हि पशवो, यद्वामं वामं हि पशवो, यद्धविष्मद्धविर्हि पशवो, यद्वपुष्मद्वपुर्हि पशवो, यच्छाक्वरं यत्पाङ्क्तं यत्कुर्वद्, यद्द्वितीयस्याह्नो रूपमेतानि वै पञ्चमस्याह्नो रूपाणि। इन लक्षणों में दुग्धवत् लक्षण ध्यान देने योग्य है। प्रकृति में दुग्ध की स्थिति तभी उत्पन्न होती है जब सारे तनाव समाप्त हो जाते हैं। चतुर्थ अह के लक्षणों में से एक है – हववत्। लेकिन पंचम अह में आकर यह लक्षण हविष्मत् हो गया है। यह देवताओं को हवि प्रदान कर सकता है। पङ्क्ति छन्द लक्षण के विश्लेषण के संदर्भ में, सोमयाग में अग्निचयन नामक एक कृत्य होता है जिसमें अग्नि का चयन पांच चितियों या परतों में किया जाता है। चयन से अर्थ है कि मिट्टी की पकी ईंटों द्वारा एक परत का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि एण्ट्रांपी या अव्यवस्था न्यूनतम हो। यदि पांच परतों में एण्ट्रांपी को न्यूनतम रखने में सफलता मिल जाए तो अग्नि श्येन का रूप धारण कर उडने और स्वर्ग से सोम लाने में सफल हो सकती है। इन पांच परतों को पंक्ति छन्द के पांच पद कहा गया है(तैत्तिरीय संहिता ५.६.१०.३)। यह पांच परते पशु में लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा हो सकती हैं(ऐतरेय ब्राह्मण २.१४, ६.२९) जिनका चयन करना है। यहां लोम, त्वक् आदि को सामान्य जीवन के स्तर पर न लेकर साधना के स्तर पर लेना अधिक उपयुक्त होगा। उदाहरण के लिए, जब साधना में हर्ष उत्पन्न होता है तो रोमांच के कारण लोम खडे हो जाते हैं।
जहां संगीत के ग्रन्थ पंचम स्वर की पहिचान पांच स्थानों से उत्पन्न होने वाले अथवा उठने वाले स्वर के रूप में कर रहे हैं, वहीं साधना के स्तर पर पंचम दिवस की पहिचान पांच स्तरों पर व्यवस्था उत्पन्न करने के रूप में की जा रही है। यह व्यवस्था पांचों स्तरों पर, लोम से लेकर मज्जा तक, एक साथ उत्पन्न होनी है, अथवा इसे क्रमिक रूप में भी किया जा सकता है, इस पर मतभेद हो सकता है। शतपथ ब्राह्मण में पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पशु के चार पाद होते हैं लेकिन एक अतिरिक्त छिपा हुआ पाद भी होता है जो उसका मुख है। यह ऊर्ध्व पाद का एक उदाहरण है। चार पाद तो तिर्यक् दिशा में ही हैं। भागवत के पंचम स्कन्ध में जड भरत का आख्यान है जहां जड भरत जब सौवीरराज की शिबिका का वहन कर रहे होते हैं तो वह शिबिका ऊपर- नीचे होती है। यहीं से पांचवें पाद का आरम्भ कहा जा सकता है।
पंचम अह का एक लक्षण शाक्वर है। शाक्वर का स्वरूप इस दिन गाए जाने वाले शाक्वर या महानाम्नी साम के आधार पर समझा जा सकता है। महानाम्नी के संदर्भ में कहा गया है कि महानाम्नियों ने प्रजापति से पांच बार नाम प्रदान करने की मांग की और प्रत्येक बार प्रजापति ने उन्हें नाम प्रदान किए। नाम से तात्पर्य होता है – वह स्वर जिससे सोए हुए प्राण जाग जाएं। सोता हुआ व्यक्ति भी नाम लेने पर उठ खडा होता है। लगता है वैदिक साहित्य में सोए हुए प्राणों की पहिचान यव-व्रीहि के रूप में की गई है(शतपथ ब्राह्मण १.२.३.७)। जब यवों को पीस दिया जाता है तो वह लोम सदृश बन जाते हैं। जब उनमें आपः मिलाया जाता है तो वह त्वक् जैसे बन जाते हैं। जब उनका संयोजन किया जाता है तो वह मांस जैसे, संतत बन जाते हैं। जब उनको पकाया जाता है तो वह अस्थि बन जाते हैं। अस्थि दारुण होती है। जब पकाने के पश्चात् उन पर घृत लगाया जाता है तो वह मज्जा को धारण करने वाले बन जाते हैं।
शतपथ ब्राह्मण ३.२.३.१ में प्रायणीय इष्टि के संदर्भ में पंक्ति की पहिचान पांच देवताओं के रूप में की गई है जो यज्ञ के निष्पादन में सहयोग करते हैं। पांच स्तरों पर यज्ञ होने लगे, यही पांच चितियों के चयन के तुल्य हो सकता है। कहा गया है कि यज्ञ के निष्पादन के लिए पहला देवता तो अदिति है। इससे प्रायणीय आदित्य का स्वरूप क्या होगा तथा उदयनीय आदित्य का स्वरूप क्या होगा, इसका ज्ञान होता है। प्रायणीय से अर्थ है कि यज्ञ आरम्भ करने से पूर्व आदित्य के जिस स्वरूप को हमें यज्ञ का आधार बनाना है वह। आरम्भ में तो अपने अन्दर कहीं आदित्य के दर्शन नहीं होते। अतः हो सकता है कि क्षुधाग्नि के रूप में आदित्य की कल्पना करनी पडे, अथवा तीसरे चक्षु के रूप में आदित्य की कल्पना करनी पडे। इसी प्रकार यज्ञ के अवसान पर आदित्य का स्वरूप उदयनीय कहलाता है। इसकी पहचान करने वाली देवता को भी अदिति ही कहा गया है। यह आदित्य सूर्य जैसा होगा अथवा चन्द्रमा जैसा, इसकी पहिचान अदिति देवता द्वारा करनी होगी। अदिति देवता की स्थापना के पश्चात् पथ्या स्वस्ति देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो वाक् का, आकाशवाणी का रूप है। इसके पश्चात् अग्नि देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ के शुष्क भाग के विषय में सूचना देगी। इसके पश्चात् चन्द्रमा देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ के आर्द्र या सौम्य भाग के विषय में सूचना देगा। इसके पश्चात् सविता देवता का प्राकट्य होना चाहिए जो यज्ञ का निष्पादन किस प्रकार करना है, इस विषय में प्रेरणा देगा।
पञ्चमः
*नाभेः समुत्थितो वायुरोष्ठकण्ठशिरोहृदि। पञ्चस्थानसमुद्भूतः पञ्चमस्तेन कीर्तितः।। - कुम्भः
*प्राणो ऽपानस्समानश्चोदानो व्यान एव च। एतेषां समवायेन जायते पञ्चमस्वरः।। - संगीतसरणिः
*मरुन्नाभिस्थितो वक्षःकण्ठशीर्षाधराहतः। पञ्चस्थानोद्भवो यस्मात्पञ्चमः कथितस्ततः।। - पण्डितमण्डली
*पञ्चमो ऽप्येकवदनो भिन्नवर्णश्च षट्करः। वीणाकरद्वये शङ्खाब्जे वापि वरदाभये।। स्वयंभूर्दैवतं द्वीपं शाल्मलिः पितृवंशजः। कोकिलावाहनं गाता नारदः प्रथमो रसः।। - सुधाकलशः
*पङ्क्तिच्छन्दः, हास्यशृङ्गारयोर्विनियोगः, कोकिलो रौति पितृवंश्यः, जलदश्यामः, ब्राह्मणः, शाल्मलिद्वीपभूः, जनोलोकवासी, कान्यकुब्जदेशीयः, जीववारजः, सामवेदी, कौथुमशाखी, पञ्चत्रिंशद्वत्सरः, पञ्चकलः, उत्सवे विनियुक्तः, चतुश्श्रुतिः। - पण्डितमण्डली
*पञ्चमस्वरमन्त्रः – द्रुतो हृदयाय नमः। मध्यश्शिरसे स्वाहा। विलम्बितं शिखायै वषट्। द्रुतलम्बः कवचाय हुम्। द्रुतमध्यः नेत्रत्रयाय वौषट्। मध्यमलम्बः अस्त्राय फट्। वरुण ऋषिः सुप्रतिष्ठा छन्दः आन्हवी देवता। ऐं ह्रीं श्रीं पं नमः। - जगदेकः
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