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पूर्वी
राग पूर्वी सायंकाल संधि प्रकाश के समय गाया जाने वाला राग है। यह पूर्वांग प्रधान राग है। इस राग का विस्तार मन्द्र तथा मध्य सप्तक में अधिक होता है। इस राग की प्रक्रुति गम्भीर है।
आरोह और अवरोह दोनों में तीव्र मध्यम का प्रयोग होता है तथा शुद्ध मध्यम का प्रयोग केवल अवरोह में वक्रता से किया जाता है। जैसे - प म् ग म ग - अर्थात् शुद्ध मध्यम, गंधार के बीच में रहता है और यही राग वाचक स्वर समूह है। पंचम स्वर पर अधिक ठहराव न करते हुए और उक्त राग वाचक स्वर लेने से राग पूरिया धनाश्री से बचा जाता है। तार षडज पर जाते समय पंचम को दुर्बल किया जाता है जैसे - म् ध१ नि सा'
इस राग में मींड व गमक का प्रयोग उसके प्रभाव में व्रुद्धि करते हैं। विषाद युक्त करुण रस की उत्पत्ति इस राग से होती है। मंद्र निषाद पर ठहराव नहीं करना चाहिए अन्यथा राग गौरी का आभास होता है। इसी प्रकार प म् ग म ग इस स्वरों से राग परज व राग बिहाग की छाया भी आ सकती है। अतः इस राग को गुरुमुख से ही सीखना उपयुक्त है।
यह स्वर संगतियाँ राग पूर्वी का रूप दर्शाती हैं -
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