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वेद में एक शब्द है समानिवोआकुति
वेद में एक शब्द है समानिवोआकुति जिसका अर्थ है श्रोताओं को मन के अनुसार बांध कर सामान भाव से संतुष्ट कर देना. उन्होंने ठुमरी को नीचे से ऊपर पहुँचाया और अगर उन्हें संगीत का वाज्ञेयकार कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
"मुझे याद है 1972 में टाउनहॉल मैदान में एक कार्यक्रम के दौरान वो मंच पर आईं और उन्होंने राग यमन, मालकौंस के बाद कई बंदिशें सुनाई लेकिन उसके बाद जब ठुमरी शुरू हुई तो उपस्थित जनसमूह ने उन्हें कुछ देर और गाने का आग्रह किया. बड़े ही मीठे स्वर में उन्होंने कहा 'आप लोग जाए न देबा’ और वे एक घंटे तक अनवरत जाती रहीं.
आजकल यह सब नहीं होता है. उन्होंने देशज शब्दों जैसे रिसियाय गए, ठुमुक गए, पहुड़ लियो को अपनी बोलचाल के साथ अपने संगीत में इस्तेमाल किया. उनकी भाषा में देशज शब्दों का एक अलग प्रवाह और लालित्य था.
वाराणसी के प्रख्यात शास्त्रीय गायनाचार्य पंडित राजेश्वर आचार्य गिरिजादेवी के बारे में बताते हैं, 'देश ने सुर साम्राज्ञी गिरिजा देवी को खोया है लेकिन मैंने अपनी बड़ी बहन को खोया है जो न सिर्फ संगीत की सभी विधाओं में निपुण थीं बल्कि मुझ जैसे सभी सहोदर भाईयों और शिष्याओं को प्यार-दुलार और फटकार देती रहीं. देशज शब्दों से लिपटी उनकी वाणी में काशिका, अवधी और अन्य आंचलिक बोलियां घुली हुई होती थी.
बनारस उनमे कूट-कूट कर भरा हुआ था और उन्होंने कभी खुद को सम्पूर्ण नहीं माना और जीवन भर मोक्ष की कामना करती रहीं. मुझे आज भी याद है कि जब कुछ साल पहले उनके बीमार होने की खबरें उड़ीं तो उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि उन्हें संगीत ही मोक्ष तक लेकर जाएगा. आज शायद उनकी बात सच हो गई है लेकिन वो जाते जाते एक बड़ी थाती छोड़ गई हैं जिसको संभालना कठिन है. "
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