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शास्त्रीय संगीतः जातिवाद का दौर हुआ ख़त्म?
एक सभा में कर्नाटक संगीत का कार्यक्रम चल रहा है. काफी सारे बुजुर्ग और संगीत के जानकारों के बीच एक दो विदेशी भी बैठे हैं. जैसे ही एक कार्यक्रम ख़त्म होता है, वे वहां से दूसरी जगह भागते हैं- एक और गायक को सुनने या एक और नृत्य देखने के लिए.
चेन्नई में दिसंबर और जनवरी के महीनों में एक खासियत है- इस समय यहाँ हर जगह शास्त्रीय संगीत की धुन गूंजती रहती है. 'मार्गड़ी' नाम का यह तमिल महीना यहाँ 'म्यूज़िक सीज़न' के नाम से मशहूर है.
इस समय सैकड़ों ऐसे कार्यक्रम होते हैं. यहाँ तक कि कुछ संगीत प्रेमी अपनी साल की छुट्टियां भी शास्त्रीय संगीत के लिए ही लेते हैं.
इस 'मार्गड़ी' महोत्सव में, वरिष्ठ कलाकारों के बीच कुछ युवा और बच्चे भी दिख जाते हैं.
आठवीं क्लास में पढ़ने वाली कृतिका, ऐसे ही एक बैठक में संगीत सुन रही हैं. वायलिन की पेटी के साथ बैठी कृतिका का कहना है, "मेरे घर के सभी लोग कर्नाटक संगीत पसंद करते हैं, सीखते हैं और सुनते हैं. इसीलिए मेरा शास्त्रीय संगीत और वायलिन सीखना स्वाभाविक है."
लेकिन सब बच्चों को संगीत का वातावरण नहीं मिलता. इसलिए पिछले कुछ महीनों से शास्त्रीय संगीत को ऐसी जगहों तक ले जाने की कोशिश को रही है जहां पहले उसकी पहुंच नहीं थी.
अपने-अपने म्यूज़िक सीज़न
संगीतकार अनिल श्रीनिवासन ने कुछ महीने पहले चेन्नई निगम के स्कूलों के साथ शास्त्रीय संगीत सिखाने की एक योजना शुरू की है. उनका मानना है कि यह बच्चों के विकास के एक महत्वपूर्ण तत्व को शिक्षा में शामिल करने की कोशिश है.
वह कहते हैं, "प्रतिभा चारों ओर बिखरी पड़ी है. ज़रूरत सिर्फ़ उसे अवसर और सुविधा देने की है."
हालांकि यह प्रयास सिर्फ़ कुछ महीने पहले ही शुरू किया गया था लेकिन इस साल पहली बार सरकारी स्कूलों के इन बच्चों ने इस 'म्यूज़िक सीज़न' के दौरान 'सभाओं' में कार्यक्रम पेश किए.
समाज के वंचित तबके के बच्चों के लिए यह बेहद उत्साहजनक मौका रहा है. क्योंकि अब तक शास्त्रीय संगीत को सिर्फ़ उच्च वर्ग के लोगों की कला माना जाता रहा है.
Image captionआठवीं कक्षा की छात्रा कृतिका के घर में संगीत का माहौल है, इसलिए उन्हें अपना वायलिन सीखना स्वाभाविक लगता है.
इतिहासकार और लेखक प्रदीप चक्रवर्ती के अनुसार, "कर्नाटक संगीत कभी भी संभ्रांत संगीत नहीं माना गया. इसके बोल तेलुगु में थे, वह भाषा- जिसे संभ्रांत लोग बोलते ही नहीं थे. देवदासियां श्रद्देय थीं और मंदिरों के अंदर हर तरह के संगीतकारों का काफ़ी महत्व था. 17वीं शताब्दी में जब देवदासियां हड़ताल पर चली गईं तो तिरुवोत्त्रीयूर मंदिर में धार्मिक कर्मकांड रुक गए और मामले को सुलझाने के लिए राजा को दखल देना पड़ा."
प्रदीप कहते हैं कि संगीत में हमेशा समानता रही है लेकिन हाल ही में इसे चुनिंदा लोगों के लिए माने जाने लगा.
परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स पर आधारित श्रुति पत्रिका के मुख्य संपादक वी रामनारायण के विचार इससे अलग हैं.
वह कहते हैं, "दुनिया भर में कहीं भी शास्त्रीय कला आम लोगों की नहीं होती. कर्नाटक संगीत की मूल प्रवृत्ति के अनुसार भी इसमें एक स्तर तक प्रदर्शन और समझने की योग्यता होनी चाहिए. बहुत कम ही लोग इसे समझ और सराह पाते हैं. इस समय सैकड़ों कार्यक्रम हो रहे हैं लेकिन ज़्यादातर श्रोता यंत्रवत ढंग से सुनते और ताली बजाते हैं."
शास्त्रीय कला को प्रोत्साहन देने में स्कूल भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं. हालांकि सरकारी स्कूलों के साथ प्रयोग नया है लेकिन चेन्नई में कई स्कूलों ने संगीत और कला को अपने पाठ्यक्रम में काफ़ी पहले शामिल कर लिया था और वह विद्यार्थियों के प्रदर्शन को प्रोत्साहन देने के लिए अपने 'म्यूज़िक सीज़न' आयोजित करते हैं.
जाति का प्रभाव !
पीएसबीबी समूह की डीन, श्रीमती वाई जी पार्थसारथी, ने अपने अपने विद्यालय समूह द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए शास्त्रीय कलाओं को महत्व दिए जाने और उनके लिए ढांचागत प्रशिक्षण के प्रोत्साहन पर ज़ोर दिया.
जानी-मानी वायलिन कलाकार हेमलता की बेटी शहर में ही एक अन्य स्कूल में शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं.
वह स्थिति का विश्लेषण करते हुए कहती हैं, "हालांकि इसे स्कूलों में अनिवार्य कर दिया गया है लेकिन उच्च कक्षाओं तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ़ तीन या चार विद्यार्थियों की रुचि ही इसमें कायम रहती है. हालांकि स्कूल अलग-अलग तरह की शैलियों के प्रशिक्षण और प्रदर्शन का मौका देता है लेकिन इसका परिणाम बहुत सीमित होता है. अभिभावकों का ध्यान उन एक या दो नंबरों पर ही रहता है, जो बच्चे के कम आते हैं और वह शास्त्रीय कला के लिए अलग समय निकालने में रुचि नहीं लेते."
अनिल श्रीनिवासन कहते हैं कि प्रदर्शन पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं है, "यह ज़रूरी नहीं है कि पर बच्चा प्रदर्शन करे- सौ में सिर्फ़ एक बच्चा ही स्टेज तक पहुंचता है. यह संपूर्ण विकास के लिए है."
प्रदीप भी इसी तरह की बात कहते हैं, "अगर बच्चे इसका दीर्घकालिक उद्देश्य समझ जाते हैं और यह जान लेते हैं कि वह क्या गा रहे हैं तो वह बेहतर इंसान और बेहतर अभिभावक बन सकते हैं. दरअसल आवाज़ का प्रशिक्षण आपको प्रस्तुतिकरण की बेहतर दक्षता भी प्रदान करता है."
हाल ही में एक पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में ख़्यात संगीतकार टी एम कृष्णा के कर्नाटक संगीत में सबको शामिल करने के बारे में दिए गए एक बयान पर सोशल मीडिया पर बहस का तूफ़ान खड़ा हो गया. सामान्यतः इस पर खुलकर बात नहीं होती कि क्या शास्त्रीय संगीत पर वर्ग विशेष का वर्चस्व है.
जाति की भूमिका विशेषकर उच्च जाति के कलाकारों को लेकर एक उदाहरण दिया गया कि एक संपूर्ण संगीत-समारोह में "नादस्वरम" को जगह क्यों नहीं मिलती. शहनाई की तरह ही किसी भी शुभ कार्य या त्यौहार में इस वाद्य का बजना अनिवार्य है और इसे पारंपरिक रूप से गैर-उच्च वर्ग के लोग ही बजाते हैं.
नादस्वरम विद्वान कोतान्दरमन कहते हैं, "हालांकि इस वाद्य को अभी और समर्थन दिए जाने और संगीत समारोहो और मौके दिए जाने की ज़रूरत है लेकिन अब कुछ बदलाव दिखने लगे हैं. पिछले कुछ सालों में नादस्वरम को फिर से संगीत-समारोहों में स्थान मिलने लगा है."
जीवन का उत्साह लौटा
परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स पर लिखने वाले या कलाकार इस बहस से दूर ही रहते हैं.
श्रुति पत्रिका के मुख्य संपादक रामनारायण कहते हैं, "ऐतिहासिक रूप से सभी 'विद्वान' उच्च वर्ग पर निर्भर करते हैं. इनमें देवदासियां और नादस्वर विद्वान भी शामिल हैं जो दूसरे समुदायों से हैं. हालांकि ज़्यादातर श्रोताओं-दर्शकों में उच्च वर्ग ही होता है लेकिन किसी को भी आने से रोका नहीं जाता; ज़्यादातर संगीत-समारोहों में तो टिकट भी नहीं होता."
एक अच्छा उदाहरण दिया जाता है कि मुस्लिम नादस्वरम कलाकार कई मंदिरों के स्थाई कलाकार रहे हैं.
इतिहासकार और पत्रकार, प्रदीप के अनुसार, "गीत के बोल कहते हैं कि भगवान की सेवा में अहम् को त्याग दो. ध्यान गीत के अर्थ पर दिया जाना चाहिए न कि इस पर कि उसे कौन गा रहा है. तकनीक के साथ- स्काइप और खुद को संगीत सिखाएं सीडी के साथ यह पहले से ज़्यादा सब को मिलाकर चलने वाला हो गया है."
वायलिन वादक हेमलता इससे सहमत हैं, "अपनी मूल शास्त्रीय प्रवृत्ति के कारण कर्नाटक संगीत कम ही लोगों में लोकप्रिय है. लेकिन, सिर्फ़ इसी वजह से इसे संभ्रांत नहीं कहा जा सकता."
नादस्वर विद्वान, कोतान्दरमन मानते हैं कि संगीत इस सबसे ऊपर है. वह कहते हैं, "प्रतिभाशाली लोगों को पहचान मिल ही जाती है, चाहे कुछ हो जाए. असली गुणों वाले व्यक्ति को आगे बढ़ने और चमकने के मौके मिल ही जाते हैं."
अनिल श्रीनिवासन जैसे संगीतकार वंचित तबके के बच्चों को यही मौका देने के लिए कोशिश कर रहे हैं.
सरकारी स्कूलों के साथ शुरू किए गए उनके कार्यक्रम के बाद इन बच्चों ने पहली बार इस संगीत काल में स्टेज पर कार्यक्रम दिया. यह अपनी तरह का पहला कार्यक्रम था जिससे लगा कि कांच की दीवार टूट रही है.
वह कहते हैं, "इस कार्यक्रम को शुरू हुए एक साल से भी कम वक्त हुआ है लेकिन हमें भारी बदलाव नज़र आ रहे हैं. इसने सरकारी स्कूलों के इन बच्चों में उम्मीद जगाई है. सभी को भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इससे चारों ओर ओज, उत्सुकता फैल गई है. इसने ज़िंदगी के प्रति उत्साह उनमें लौटा दिया है."
यह उत्साह अभी और बढ़ेगा और कलाओं में लोगों की सहभागिता बढ़ेगी, चाहे वह कोई भी हों या कहीं के भी हों.
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