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संगीत का प्राणि वर्ग पर असाधारण प्रभाव
रेडियो तरंगों की तरह संगीत की भी शक्तिशाली तरंगें होती हैं। वे अपने प्रभाव क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। उनसे वातावरण अनुप्राणित होता है। पदार्थों में हलचल मचती है और प्राणियों की मनोदशा पर उसका अनोखा प्रभाव पड़ता है। प्राणियों में मनुष्य की बौद्धिक एवं संवेदनात्मक क्षमता अन्य प्राणियों से विशिष्ट है। इसलिए संगीत का उस पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। यों भाव संवेदना प्राणि मात्र पर पड़ती है। वे अपने सामान्य क्रिया कलाप रोक कर वादन ध्वनि के साथ लहराने लगते हैं। उनमें शब्द ज्ञान तो होता नहीं इसलिए गायनों का अर्थ समझने में असमर्थ रहने पर भी वे गीतों के साथ जुड़े हुए भाव संचार को ग्रहण करते और उससे अनुप्राणित होते हैं।
कभी संगीत एक मनोरंजन था। इसी निमित्त उसका सरंजाम जुटाया जाता था। पर समय बदलने के साथ उसका महत्व समझा गया और विज्ञान की एक प्रभावशाली शाखा के रूप में उसे स्थान दिया जाने लगा। उसका प्रभाव भाव संचार में तो प्रत्यक्ष ही देखा जाता है, पर परोक्ष रूप से उसकी प्रतिक्रिया स्नायु समूह में हलचल उत्पन्न करने के रूप में भी देखी गई है। उसका प्रभाव मनुष्य पर क्या पड़ता है? इसका अन्वेषण करने पर पता चला है कि ज्ञान तन्तु, तथा नाड़ी संस्थान के सभी छोटे-बड़े घटक उनसे झंकृत होते हैं और शिथिलता को सक्रियता में परिणति करते हैं। इससे सर्वतोमुखी प्रतिभा जगती है। युद्ध सैनिकों से लेकर कामुकों तक उसकी उत्तेजना प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है।
यह प्रयोग मनुष्यों के शारीरिक और मानसिक रोग निवारण में अपना जादुई प्रभाव दिखाता दृष्टिगोचर हो रहा है। मनोविज्ञान शास्त्र और स्वर शास्त्र के विशेषज्ञों द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि किस रोग में किस संगीत प्रवाह से क्या प्रभाव किस प्रकार पड़ता है और उसका प्रयोग कब, किस निमित्त किस प्रकार करना चाहिए? अस्पतालों में पहले मात्र मानसिक रोगियों को ही संगीत टेप सुनाकर बिजली का झटका देने या नींद की गोलियाँ देने जैसे प्रयोग होते थे। उनसे मिलने वाले लाभों को देखते हुए शारीरिक रोगों के निमित्त भी कितने ही प्रकार के टेप बने और उन्हें सुनने पर रोगी इतने अधिक लाभान्वित होने लगे जितने दवादारू से भी नहीं होते थे।
अब संसार के महत्वपूर्ण विद्यालयों में यह प्रयोग चल रहे हैं कि संगीत को चिकित्सा विज्ञान का महत्वपूर्ण अंग किस प्रकार बनाया जाय? वह दिन दूर नहीं, जिसमें संगीत को रोग निवारण के लिए ही नहीं वरन् स्वास्थ्य सम्वर्धन, बुद्धि विकास एवं प्रतिभा उभार के लिए भी प्रयुक्त किया जाने लगेगा। अब तक उसे खुशी के अवसरों पर प्रयुक्त किया जाता था। अब उसे शोक, क्रोध, चिन्ता, भय, आवेश आदि के समाधान के लिए भी प्रयुक्त किया जाने लगेगा। भाव-संवेदना और मस्तिष्कीय सन्तुलन के लिए संगीत उतना लाभ प्रस्तुत करने लगेगा जितना कि अन्य उपचार विधान अभी तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं।
पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं पर भी यह प्रयोग आजमाया गया है और उसका समुचित प्रतिफल भी सामने आया है। वैज्ञानिकों ने चिड़ियाघरों में बन्द पक्षियों पर यह प्रयोग करने में सुविधा समझी। इसलिए उनके कटघरों से बाहर विविध प्रकार के संगीत टेप बजाये। देखा गया कि वे इसे सुनकर मन्त्र मुग्ध होते रहे। अपने-अपने सामान्य काम छोड़कर वे इकट्ठे हो गये। जहाँ से वह ध्वनि निस्सृत हो रही थी। पर जैसे ही वादन बन्द हुआ वैसे ही वह उदास हो गये और मुँह लटकाकर इस आशा में बैठे रहे कि कदाचित उसे सुनने का अवसर फिर मिले। बन्दर जैसे चंचल और उपद्रवी जीव आपस में चेंचें करना तक भूल कर उस अवसर पर भोले कबूतरों की तरह बैठे रहे। यह मन्द और मादक संगीत का प्रभाव था, पर जब उत्तेजक आक्रोश भरे और डरावने बाजे बजाये गये तो वे भी उत्तेजित हो उठते। चंचलता बढ़ी और आक्रोश में एक-दूसरे पर हमला करने लगे। कुछ ने दीवारों से टक्करें मारना और उपयोगी वस्तुओं को तोड़ना-फोड़ना शुरू कर दिया। किन्तु वादन बदल देने पर उन्हें शान्त होने में भी देर न लगी। बच्चे जो बहुत देर से इस प्रवाह से भर गये थे, थक कर अपने-अपने कटघरों में घुस गये और झपकियाँ लेने लगे।
एक सधा हुआ ऊँट था। नक्कार खाने का कोई उत्सव होता तो उसकी पीठ पर नगाड़ा लाद कर चोबदार उसे बजाता हुआ चलता। ऊँट बहुत बूढ़ा हो गया। काम का न रहा तो उसे खुला छोड़ दिया गया। राजा का होने से कोई उसे मारता न था। ऊँट एक दिन बुढ़िया के सूखते हुए अनाज को खाने लगा। बुढ़िया ने सूप बजाकर भगाना चाहा। ऊँट ने कहा, “जनम भर नगाड़ों की आवाज सुनता रहा हूँ। तुम्हारे सूप से क्या डरने वाला हूँ।” बहुत सत्संगियों पर किसी की शिक्षा का असर नहीं पड़ता। आयु बीत जाने पर भी सारे जीवन भर के संस्कार छाये रहते हैं। उससे उबारने की सोचें तो जीवन को दिशा भी मिले।
चिली के चिड़ियाघरों में यह प्रयोग पक्षियों पर किया गया। सामान्य संगीत से तो वे भी उड़ना और चुगना छोड़कर उन पेड़ों पर बड़ी संख्या में आ जमे जहाँ लहराने वाला संगीत स्पष्ट सुनाई दे रहा था। उड़ाने, भगाने पर भी वे गये नहीं, एक डाली से दूसरी पर फुदकते भर रहे।
ऐसे विचित्र संगीत भी ढूँढ़ निकले गये हैं जो निराश निठाल, उदास एवं प्रतिभा रहित कर देते हैं। उन्हें सुनते रहने पर माँसाहारी हिंस्र जन्तुओं ने भूखे होने पर भी किसी पर आक्रमण का बड़ा साहस नहीं किया। आसपास के कीड़े-मकोड़े खाकर ही सन्तोष करते रहे। दुर्बल जीव-जन्तु स्थिरता ही नहीं अपना बैठे वरन् आँखों से आँसू भी बहाने लगे। शायद वे उनकी प्रसन्नता के सूचक थे।
संगीत का प्रयोग जलचरों पर भी वैसा ही प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। आकर्षण संगीत टेप से मछलियाँ, कछुए, केकड़े तक उस क्षेत्र में दौड़ते चले आये और बिना किसी झिझक आशंका के वहाँ तक बढ़ते चले गये जहाँ से उसे संगीत की आवाज आरम्भ हो रही थी। इसके बाद दूसरा प्रयोग डरावने भयंकर स्वर बदल कर किया गया तो उस क्षेत्र में जो जीव-जन्तु थे, वे अपनी जान बचाकर दूर-दूर चले गये। मछली मारों ने उस प्रयोग का शिकार पकड़ने में लाभ उठाया।
पशु-पक्षियों की अपनी भाषा होती है। यद्यपि उनमें थोड़े-थोड़े ध्वनि शब्द ही होते हैं, पर उन्हीं के सहारे से आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते रहते हैं। विभिन्न जीवों के उच्चारण विभिन्न प्रकार के हैं। इन संकेत स्वरों को टेप करके सुनाने पर उस वर्ग के प्राणी वैसी ही हरकतें करने लगे जैसे कि उनको संकेत उपलब्ध हुए। प्रणय निवेदन के स्वर सुनाकर उस वर्ग की नर-मादाओं को बड़ी संख्या में एकत्रित होते और सम्बन्ध बनाने के लिए आतुर होते देखा गया।
संगीत का पेड़-पौधों पर भी अच्छा प्रभाव देखा गया है। बर्लिन के एक उद्यान में दाहिने पक्ष में संगीत बजाये जाने का क्रम बना और उत्तरी पक्ष को नहीं छेड़ा गया। देखा गया कि संगीत वाली क्यारियों में फूल और फल अधिक उगे और उनकी बढ़ोत्तरी गति भी तेज हुई।
अब पशु पालक दूध दुहते समय ऐसे संगीत टेप बजाने लगे हैं, जिन्हें सुनकर उनका दूध अधिक मात्रा में स्रवित होने लगता है। किसान भी इस विधा को अपना कर रोगी कीटकों को मारने तथा अच्छी फसल उपजाने में सफल हो रहे हैं।
(अखण्ड ज्योति Apr 1986)
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