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स्वर धैवत का शास्त्रीय परिचय
नारद पुराण में धैवत स्वर द्वारा असुर, निषाद व भूतग्राम के तृप्त होने का उल्लेख है। यहां भूतग्राम से तात्पर्य हमारे पूर्व जन्म के संस्कारों से हो सकता है। यदि धैवत शब्द का वास्तविक रूप दैवत हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ होगा कि धैवत स्वर में पुरुषार्थ का अभाव है, केवल कृपा, दैव शेष है। प्रथम स्थिति में धैवत/दैवत स्वर का रस भयानक या बीभत्स कहा जाएगा और दैवकृपा प्राप्त होने पर यह करुण रस बन जाएगा।
नारदीय शिक्षा में धैवत स्वर के देवता के रूप में ह्रास-वृद्धि वाले सोम का उल्लेख है। अध्यात्म में, वृद्धि-ह्रास हमारे चेतन-अचेतन मन में हो सकता है।
धैवत शब्द का मूल धे धातु है जिससे धयति शब्द बनता है जिसका अर्थ वत्स द्वारा माता के दुग्ध का पान करना, अथवा माता द्वारा वत्स को दुग्ध का पान कराना होता है। इस प्रकार धैवत शब्द का रूप धयवत् या धयवत्स होना चाहिए। सोमयाग के कर्मकाण्ड में गौ के सारे दुग्ध का दोहन यज्ञ में आहुति हेतु कर लिया जाता है, वत्स को भूखा रखा जाता है। इसका कारण यह दिया गया है कि वत्स आसुरी है। गौ के पयः का उपयोग दैव कार्य के लिए होना चाहिए, न कि आसुरी कार्य के लिए। धैवत स्वर का भयानक व करुण रस और हाहा ऋषि है, जबकि निषाद स्वर का शान्त रस और हूहू ऋषि है। पुराणों में हाहा-हूहू ऋषियों में प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। हाहा-हूहू ऋषि ही परस्पर शाप से गज-ग्राह बनते हैं जिनकी कथा भागवत में प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जा सकता है कि हाहा साधना में कोई भयानक रस की स्थिति है जबकि हूहू कोई आनन्द की स्थिति। इस कल्पना की पुष्टि कथाओं से अपेक्षित है।
*गत्वा नाभेरधो भागं वस्तिं प्राप्योर्ध्वगः पुनः। धावन्निव च यो याति कण्ठदेशं स धैवतः।। - सङ्गीतसरणिः
*धैवतो गौरवर्णः स्यादेकवक्त्रश्चतुर्भुजः। वीणाकलशखट्वाङ्गफलशोभितसत्करः। शम्भुस्तु दैवतं श्वेतं द्वीपं स्यादृषिजं कुलम्। रसो भयानकश्चाश्वो यानं गाता तु तुम्बुरुः।। - सुधाकलशः
अविकसित स्थिति में धैवत/दैवत स्वर का रस भयानक या बीभत्स कहा जाएगा और दैवकृपा प्राप्त होने पर यह करुण रस बन जाएगा।
*पताकः पुङ्खिताकारो रेचित्वमुपाश्रितः। द्रुता दृष्टिश्च विज्ञेया धैवतार्थे प्रयुज्यते।। - शृङारः
*उष्णिक् छन्दः करुणरसः दर्दुरो वदति, ऋषिकुलीनः, चम्पकप्रभः, क्षत्रियः, श्वेतद्वीपभूः, सत्यलोकवासी, चोलदेशीयः, शुक्रवारजः, सामवेदी, कौमुदशाखी, चत्वारिंशद्वार्षिकः, षट्कलावान्, क्षात्रकर्मणि प्रयुक्तः, नीचस्वरः, त्रिश्रुतिः – पण्डितमण्डली
इस कथन में धैवत स्वर का छन्द उष्णिक् कहा गया है । उष्णिक् छन्द वह हो सकता है जिसमें किसी कार्य को करते समय ऊष्मा का अवशोषण या जनन होता हो। देवनागरी वर्णमाला में अन्तस्थ वर्णों य, र, ल, व को ऊष्मा का अवशोषण करने वाले तथा ऊष्माण वर्णों श, ष, स को ऊष्मा का जनन करने वाला कहा गया है। अन्तस्थ वर्णों को आत्मा का बल तथा ऊष्माणों को इन्द्रिय कहा गया है(भागवत पुराण)। उष्णिक् छन्द के सम्बन्ध में एक अनुमान दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र से लगाया जा सकता है। मध्यम चरित्र का छन्द उष्णिक् है। दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र में देवगण अपना-अपना तेज देकर एक देवी का निर्माण करते हैं जो महिषासुर का वध करने में समर्थ होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि यदि अतिरिक्त मात्रा में ऊष्मा विद्यमान है तो उसे शुद्ध तेज में रूपान्तरित होना चाहिए।
धैवत स्वर को शुक्रवार से सम्बद्ध किया गया है। जब सात वारों के आधार पर एक वृक्ष की कल्पना की जाती है तो शुक्र को कच्चा फल कहा गया है। बृहस्पति(वर्तमान संदर्भ में पञ्चम स्वर) को पका फल या जीव कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह के प्रभाव में जन्मे जातक को भोगप्रिय, स्त्रीप्रिय कहा जाता है। शुक्र से प्रभावित व्यक्ति संसार के सारे भोगों का आस्वादन क्षण भर में ही कर लेना चाहता है, बिना उचित प्रयत्न किए। लेकिन पौराणिक और वैदिक साहित्य में शुक्र की दूसरी अवस्था की ओर भी संकेत है – उत्तान स्थिति(उत्तानपर्णे सुभगे – ऋग्वेद १०.१४५.२ ऋचा का विनियोग शुक्र ग्रह हेतु है), सिर नीचे, पैर ऊपर। मन्त्र में दर्दुर को धैवत शब्द उच्चारण करने वाला कहा गया है। साहित्य में मण्डूक सर्वदा वृष्टि की, दिव्य प्राणों की वृष्टि की कामना करता रहता है। हो सकता है धैवत स्वर इस कामना की पूर्ति करता हो।
*धैवतस्वरमन्त्रः – गोपुच्छ हृदयाय नमः। स्रोतोवहः शिरसे स्वाहा। समा शिखायै वषट् समा कवचाय हुम्। अर्तिसमः नेत्रत्रयाय वौषट्। हाहा ऋषिः प्रतिष्ठा छन्दः शची देवता। ऐ क्लीं सौं धं नमः।
धैवत के उपरोक्त मन्त्र में इस स्वर को स्रोतवाही कहा गया है। आयुर्वेद में स्रोतवाही द्रव्य वह होते हैं जो देह के सूक्ष्म छिद्रों में प्रवेश की सामर्थ्य रखते हैं, जैसे गुग्गुल, तिल आदि। प्रयुज्यमान ओषधि को स्रोतवाही द्रव्य के साथ मिश्रित कर दिया जाता है जिससे वह देह के अपेक्षित अंग तक पहुंच सके। देह में शुक्र धातु को भी एक प्रकार से स्रोतवाही के रूप में समझा जा सकता है।
*धैवताभिनयः – काङ्गूलहस्तकौ कृत्वा दृष्ट्या बीभत्सया तथा। परावृत्ताख्यमूर्ध्ना च प्रत्यालीढाभिधेन च। स्थानकेन विनिर्देश्यो धैवतो निपुणैर्नटैः।।
*निर्हासो यश्च वृद्धिश्च ग्राममासाद्य सोमवत्। तस्मादस्य स्वरस्यापि धैवतत्वं विधीयते।। - नारदीय शिक्षा १.५.१८
साम भक्तियों में उपद्रव भक्ति को धैवत के तुल्य कहा जा सकता है। उपद्रव भक्ति के विषय में कहा गया है कि आरण्यक पशु उपद्रवण कर जाते हैं, अतः इसका नाम उपद्रव है। ग्राम्य पशु वह हैं जिन पर हम थोडा-बहुत नियन्त्रण कर सकते हैं। लेकिन आरण्यक पशुओं पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता। यह हमारे विशिष्ट प्रकार के पापों, बन्धनों का रूप हो सकता है।
*द्यौर्वै देवता षष्ठमहर्वहति त्रयस्त्रिंशः स्तोमो रैवतं सामातिच्छन्दाश्छन्दो यथादेवतमेनेन यथास्तोमं यथासाम यथाछन्दसं राध्नोति य एवं वेद। यद्वै समानोदर्कं तत्षष्ठस्याह्नो रूपं यद्ध्येव तृतीयमहस्तदेतत्पुनर्यत्षष्ठं यदश्ववद्यदन्तवद्यत्पुनरावृत्तं यत्पुनर्निनृत्तं यद्रतवद्यत्पर्यस्तवद्यत्त्रिवद्यदन्तरूपं यदुत्तमे पदे देवता निरुच्यते यदसौ लोकोऽभ्युदितः, यत्पारुच्छेपं यत्सप्तपदं यन्नाराशंसं यन्नाभानेदिष्ठं यद्रैवतं यदतिच्छन्दा यत्कृतं यत्तृतीयस्याह्नो रूपमेतानि वै षष्ठस्याह्नो रूपाणि इति। - ऐतरेय ब्राह्मण ५.१२
धैवत के वैदिक संदर्भ
सा(आहुतिः) हैनं नाऽभिराधयाञ्चकार। केशमिश्रमिव हास। तां व्यौक्षत्-ओषं धयेति। तत ओषधयः समभवन्-तस्मादोषधयो नाम। - शतपथ ब्राह्मण २.२.४.५
अथ द्वितीयां जुहोति- उपसृजन्धरुणं मात्रे इति। अग्निमेवैतत्पृथिव्याऽउपसृजन्नाह। धरुणो मातरं धयन् इति। अग्निमेवैतत्पृथिवीं धयन्तमाह। - शतपथ ब्राह्मण ४६.९.९
यदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन्। एतत्तदग्ने अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया इति। - शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.२१
इयं वै धेनुः। इमामेव सर्वान् कामान् दुहे । वत्सं पूर्वस्यां दधाति। मातरमुत्तरस्याम्। यदा वै वत्सो मातरं धयति। अथ सा प्रत्ता दुहे प्रत्तामेवैमां सर्वान् कामान् दुहे। - शतपथ ब्राह्मण १२.९.३.११
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